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नवजात शिशु शारीरिक रूप से नाजुक और कमजोर होते हैं। इसलिए, माता-पिता को उनके स्वास्थ्य के प्रति अधिक सजग रहना चाहिए, ताकि वो किसी भी प्रकार की बीमारी का न हो जाएं। इसी बात को ध्यान में रखते हुए मॉमजंक्शन के इस लेख में हम नवजात शिशु को जन्म के समय होने वाली बीमारियों की विस्तृत जानकारी लेकर आए हैं। यहां हम इन बीमारियों के होने के कारण व लक्षण के साथ-साथ इनके इलाज पर भी चर्चा करेंगे।

तो चलिए इन बीमारियों के बारे में एक-एक करके जानते हैं।

1. कॉलिक

colic
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अगर शिशु दिन में 3 घंटे से अधिक समय तक रोता है, तो इसे कॉलिक यानी उदरशूल कहा जाता है। नवजात शिशुओं में ये समस्या आम मानी जाती है। आंकड़ों के अनुसार 5 में से 1 बच्चा इस समस्या से गुजरता है। यह समस्या तब शुरू होती है, जब शिशु लगभग 3 सप्ताह के होते हैं। वहीं, 4-6 हफ्ते का होने तक यह गंभीर हो सकती है। अधिकांश मामलों में शिशु में कॉलिक की समस्या 6 सप्ताह के बाद सुधरने लगती है, जबकि 12 हफ्ते तक यह पूरी तरह से ठीक हो जाती है (1)।

कॉलिक होने के कारण :

वैसे तो कॉलिक होने के सटीक कारणों का अभी तक पता नहीं चल पाया है, लेकिन एक रिसर्च में शिशुओं के शारीरिक और मनोसामाजिक कारकों को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया गया है (2)। इसके अलावा, कुछ संभावित कारण भी हैं, जिस वजह से शिशुओं को कॉलिक की समस्या हो सकती है (1) :

  • गैस के कारण दर्द होना।
  • भूख लगने के कारण
  • अधिक मात्रा में दूध का सेवन करना।
  • ऐसे किसी फॉर्मूला मिल्क का सेवन करना, जिससे वो बर्दाश्त नहीं कर पा रहा हो या फिर मां के दूध में मौजूद प्रोटीन को सहन न कर पाना।
  • किसी चीज को लेकर संवेदनशील होना।
  • अचानक से डर जाना।
  • शिशु के आसपास लोगों का उदास या चिंतित होना।

कॉलिक के लक्षण :

शिशुओं में कॉलिक की समस्या आमतौर पर जन्म के पहले 2 से 4 सप्ताह में शुरू होती है, जिसके निम्नलिखित लक्षण दिखाई दे सकते हैं (3):

  • शिशु का जोर से चिल्लाना या फिर मुंह बनाना।
  • चेहरे का लाल होना
  • पेट दर्द का संकेत देते हुए पैरों को ऊपर खींचना।
  • पेट से गड़गड़ाहट की आवाज सुनाई देना।
  • शिशु का शांत न होना।
  • 3 घंटे या उससे अधिक समय तक रोना।
  • गैस या मल निकासी के बाद शिशु का चुप हो जाना।

कॉलिक का इलाज :

फिलहाल, इस समस्या का कोई प्रभावी उपचार मौजूद नहीं है। हां, इस समस्या से छुटकारा पाने के लिए डॉक्टर कुछ सलाह दे सकते हैं, जो इस प्रकार हैं (2):

  1. दवाएं : शिशुओं का रोना बंद करने के लिए डॉक्टर एंटीकोलिनर्जिक दवा दे सकते हैं। हालांकि, इन दवाओं के कुछ नकारात्मक परिणाम सामने आ सकते हैं, जिसमें झपकी, नींद से जुड़ी समस्या और कोमा शामिल है। यही वजह है कि 6 माह से कम उम्र के शिशुओं के ये दवा नहीं दी जाती है।
  2. प्रोबायोटिक्स : कॉलिक की समस्या के लिए प्रोबायोटिक्स भी लाभकारी हो सकता है। एक शोध में बताया गया है कि प्रोबायोटिक्स के सेवन से शिशुओं का रोना बंद हो सकता है। प्रोबायोटिक्स एक प्रकार के जीवित सूक्ष्म जीव होते हैं। इसकी सीमित मात्रा कई मायनों में स्वास्थ्य के लिए लाभकारी हो सकती है।
  3. हाइपोएलर्जेनिक फॉर्मूला : प्रोबायोटिक्स के बाद हाइपोएलर्जेनिक फॉर्मूला का इस्तेमाल करके भी शिशुओं का रोना बंद कराया जा सकता है। इसके अलावा, अगर स्तनपान कराने वाली माताएं अपने आहार से डेयरी प्रोडक्ट्स को निकाल देती हैं, तो इसके जरिए भी बच्चों का रोना कम किया जा सकता है।
  4. कुछ अन्य उपचार : सुक्रोज, बच्चों का रोना कम करने में कारगर माना जा सकता है, लेकिन इसका असर कम समय के लिए ही होता है। इसके अलावा, व्यवहारिक उपचार, जैसे- माता-पिता द्वारा अपनी प्रतिक्रिया में सुधार लाना और माता-पिता का परामर्श लेना भी कॉलिक की समस्या में मदद कर सकता है।

2. जॉन्डिस

Jaundice
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नवजात शिशुओं को जॉन्डिस होना सामान्य माना गया है। यह समस्या तब होती है, जब शिशु के खून में बिलीरुबिन (एक प्रकार का पीला पदार्थ) की मात्रा बढ़ जाती है। इस वजह से शिशु की त्वचा और आंखों का रंग पीला हो जाता है। इसे पीलिया के नाम से भी जाना जाता है। बताया जाता है कि 10 में से 6 नवजात शिशुओं में पीलिया की समस्या देखी जा सकती है (4)।

जॉन्डिस होने के कारण :

जैसा कि हमने लेख में बताया कि जॉन्डिस का मुख्य कारण होता है, खून में बिलीरुबिन की मात्रा का बढ़ जाना। इसके अलावा, भी कुछ कारण होते हैं, जिसके वजह से नवजात शिशुओं को जॉन्डिस की समस्या हो सकती है (4) :

  1. मां का दूध – शिशु के जन्म के बाद कुछ दिनों तक मां के स्तन में कोलोस्ट्रम यानी पोषक तत्वों से भरपूर तरल पदार्थ का निर्माण होता है। जब तक स्तन में दूध नहीं बनता, तब तक शिशु इसी तरल पदार्थ का सेवन करते हैं। कुछ महिलाओं के स्तनों में इस तरल पदार्थ की मात्रा सीमित होने के कारण बच्चे का लिवर प्रभावित हो सकता है।

इसके अलावा, मां के दूध में कुछ ऐसे एंजाइम भी होते हैं, जो पीलिया का कारण बन सकते हैं। इस प्रकार का पीलिया बिल्कुल भी हानिकारक नहीं होता। इसलिए, नियमित रूप से स्तनपान कराते रहने से पीलिया कुछ हफ्तों में अपने आप ठीक हो सकता है।

  1. मां और बच्चे का ब्लड ग्रुप अलग होना- कुछ मामलों में मां और बच्चे का ब्लड ग्रुप अलग-अलग होता है। ऐसे में मां एंटीबॉडी उत्पन्न कर सकती हैं, जो गर्भावस्था के अंतिम चरणों में बच्चे की लाल रक्त कोशिकाओं को नुकसान पहुंचा सकता है। इस वजह से बिलीरुबिन के स्तर में बढ़ोतरी हो सकती है और जन्म के कुछ घंटों के अंदर शिशु को गंभीर पीलिया हो सकता है।
  2. हेमोलीटिक एनीमिया – यह एक प्रकार से इम्यून सिस्टम से जुड़ा रोग होता है, जो मां से बच्चे को मिल सकता है। इसमें बच्चे की प्रतिरक्षा प्रणाली लाल रक्त कोशिकाओं को नष्ट कर देती है। यह समस्या किसी अन्य विकार, जैसे – गंभीर संक्रमण (सेप्सिस की समस्या) के कारण भी हो सकती है।

कुछ मामलों में पीलिया की समस्या निम्नलिखित वजहों से भी हो सकती है, लेकिन ऐसा दुर्लभ मामलों में ही होता है (4) :

  • नवजात के लीवर में सूजन।
  • गैलेक्टोसेमिया यानी गैलेक्टोज युक्त पदार्थों को पचाने में दिक्कत होना।
  • बिलियरी एट्रेसिया यानी उन नलिकाओं में रुकावट होना, जो पित्त को लीवर से पित्ताशय तक ले जाती है।

जॉन्डिस के लक्षण :

शिशुओं में पीलिया के लक्षण, उसके कारण और गंभीरता पर निर्भर करते हैं, जो इस प्रकार हो सकते हैं (4):

  • त्वचा का पीला होना, खासकर चेहरे और सिर के पास की त्वचा।
  • आंखों के सफेद हिस्से का पीला होना।
  • पूरे शरीर का रंग पीला होना (मध्यम पीलिया की स्थिति में)।
  • हाथों की हथेलियों व पैरों के तलवों का पीला पड़ जाना (गंभीर पीलिया में)।
  • असामान्य रूप से नींद आना।
  • शिशु को खिलाने में कठिनाई होना।
  • कुछ मामलों में हल्के रंग का मल और गहरे रंग का पेशाब आना।

जॉन्डिस का इलाज :

शिशुओं में पीलिया का उपचार भी उसके कारण पर ही निर्भर करता है, जो इस प्रकार है:

  • फोटोथेरेपी – शिशुओं में पीलिया का इलाज करने के लिए फोटोथेरेपी को बेहतरीन विकल्प माना जाता है। इसमें शिशु की आंखों में पट्टी लगाकर उसे वेवलेंथ किरणें छोड़ने वाली रोशनी के नीचे लिटाया जाता है। इस प्रक्रिया को आधे-आधे घंटे के अंतराल पर 3 से 4 घंटे के लिए किया जाता है। आधे घंटे के अंतराल वाले समय में मां शिशु को अपना दूध पिला सकती है। दरअसल, इस प्रक्रिया के दौरान शिशु को डिहाइड्रेशन से बचाना होता है, जिसके लिए स्तनपान एक उचित विकल्प माना जाता है (5)।
  • इम्यूनोग्लोबुलिन इन्जेक्शन – इसका इस्तेमाल उस स्थिति में किया जा सकता है, जब शिशु का ब्लड ग्रुप मां से अलग होने के कारण पीलिया की समस्या होती है। हालांकि, हर मामले में यही कारण हो ऐसा जरूरी नहीं माना जाता है। इम्यूनोग्लोबुलिन इन्जेक्शन शिशु में पीलिया को कम करने के लिए एंटीबॉडी के स्तर को कम करने में मदद कर सकता है (6)।
  • शिशु का खून बदलकर – यह प्रक्रिया उस स्थिति में अपनाई जाती है, जब कोई अन्य इलाज काम नहीं करता है। इसमें शिशु के शरीर का खून डोनर के खून से तब तक बदला जाता है, जब तक उसके शरीर से बिलीरुबिन का स्तर कम नहीं हो जाता है (6)।
  • बिली ब्लैंकेट – यह एलईडी लगा हुआ एक प्रकार का कंबल होता है। इससे शिशु को अच्छे से ढका जाता है, जिससे पीलिया की समस्या को कम करने में मदद मिल सकती है। बता दें कि इस प्रक्रिया को बिना डॉक्टरी परामर्श या देखरेख के नहीं करने की सलाह दी जाती है (7)।

3. एनीमिया

Anemia
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नवजात शिशुओं को एनीमिया की समस्या भी हो सकती है। इस समस्या में शरीर में पर्याप्त स्वस्थ लाल रक्त कोशिकाएं नहीं बना पाती हैं। बता दें कि लाल रक्त कोशिकाएं शरीर के ऊतकों में ऑक्सीजन लाती हैं और इन लाल रक्त कोशिकाओं को बनाने में आयरन अहम भूमिका निभाता है। इसलिए, शरीर में आयरन की कमी होने से ही एनीमिया होता है (8)।

एनीमिया होने के कारण :

बच्चों में एनीमिया का मुख्य कारण आयरन की कमी को माना जाता है। दरअसल, नवजात शिशुओं को जन्म से पहले गर्भाशय में ही आयरन प्राप्त होता है। इसके लिए जरूरी है कि गर्भावस्था के दौरान महिला आयरन युक्त खाद्य पदार्थों का भरपूर सेवन करे। अगर जन्म के समय शिशु का वजन कम है या समय से पहले शिशु का जन्म होता है, तो इस स्थिति में आयरन की कमी का खतरा बढ़ सकता है, जो एनीमिया का कारण बन सकता है (8) (9)।

शिशुओं में आयरन की कमी के कुछ अन्य कारण भी हो सकते हैं, जो इस प्रकार हैं :

  • शिशु के 6 माह का होने पर भी सिर्फ स्तनपान कराना।
  • सही समय पर ठोस पदार्थों का सेवन नहीं कराना।
  • 2 साल से कम उम्र के बच्चों को अधिक मात्रा में गाय के दूध का सेवन कराना।
  • शिशु को दूसरे साल में पोषक तत्व न खिलाना।
  • गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल संबंधी समस्या।
  • लीड के कारण विषाक्तता होना।
  • आयरन अवशोषण की क्षमता में कमी आना।
  • आंतों में खून का रिसाव होना।

एनीमिया के लक्षण :

आमतौर पर हल्के एनीमिया के कोई लक्षण नहीं दिखाई देते हैं। हां, जब आयरन और खून की मात्रा में कमी आती है, शिशु में निम्नलिखित लक्षण दिखाई दे सकते हैं (8):

  • शिशु का चिड़चिड़ा होना।
  • सांस लेने में दिक्कत होना।
  • पिका की समस्या, जिसमें शिशु को असामान्य खाद्य पदार्थों के सेवन की इच्छा होती है।
  • शिशु को खाने की इच्छा न होना।
  • हर समय थकान या कमजोरी महसूस होना।
  • जीभ पर घाव होना।
  • सिरदर्द या चक्कर आना।

इसके अलावा, अधिक गंभीर एनीमिया की समस्या में नीचे बताए गए लक्षण दिख सकते हैं (8):

  • आंखों का रंग नीला, पीला या सफेद होना।
  • नाखून का कमजोर होना।
  • त्वचा का रंग पीला होना।

एनीमिया का इलाज :

बच्चे खाने में मौजूद आयरन की थोड़ी मात्रा को भी अवशोषित करते हैं, इसलिए अधिकांश बच्चों को प्रतिदिन 8 से 10 मिलीग्राम आयरन की आवश्यकता होती है। इसके अलावा, शिशु के आहार में बदलाव कर भी आयरन की कमी को पूरा किया जा सकता है (8):

  • 1 साल की उम्र तक बच्चे को गाय का दूध न दें। दरअसल, 1 साल से कम उम्र के बच्चों को गाय का दूध पचाने में मुश्किल होती है। इसलिए, शिशु को या तो ब्रेस्ट मिल्क या फिर आयरन से फोर्टिफाइड फॉर्मूला का ही सेवन कराना चाहिए।
  • 6 महीने के बाद शिशु को आहार में अधिक आयरन की आवश्यकता होती है। इसके लिए शिशु को आयरन-फोर्टिफाइड ठोस खाद्य पदार्थ के साथ स्तन का दूध या फॉर्मूला दूध देना शुरू करें।
  • आयरन से भरपूर प्यूरी मीट, फल और सब्जियों का सेवन भी शिशु को कराया जा सकता है।
  • 1 साल की उम्र के बाद शिशु को स्तन का दूध या फॉर्मूला दूध के स्थान पर सीमित मात्रा में गाय का दूध दिया जा सकता है।

अगर स्वस्थ आहार के सेवन से बच्चों में एनीमिया की समस्या ठीक नहीं होती है, तो ऐसे में डॉक्टर आयरन सप्लीमेंट की सिफारिश कर सकते हैं। ध्यान रहे कि बिना डॉक्टरी सलाह के शिशु को आयरन युक्त सप्लीमेंट नहीं देने चाहिए। कुछ मामलों में अधिक आयरन का सेवन विषाक्तता पैदा कर सकता है (8)।

4. लो ब्लड शुगर

Low blood sugar
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शिशु को जन्म से पहले प्लेसेंटा के जरिए मां से ग्लूकोज मिलता है। जन्म के बाद बच्चे को मां के दूध या फॉर्मूला के माध्यम से ग्लूकोज मिलता है। इसके अलावा, शिशु के लीवर में भी कुछ ग्लूकोज का निर्माण होता है। जब नवजात शिशुओं में यही ग्लूकोज का स्तर कम हो जाता है, तो उसे नियोनेटल हाइपोग्लाइसीमिया कहा जाता है। इस समस्या का पता जन्म के बाद पहले कुछ दिनों में शिशु के ब्लड ग्लूकोज की जांच कर लगाया जाता है। बताया जाता है कि लगभग 1000 में से 1 से 3 शिशुओं को ये समस्या हो सकती है (10)।

लो ब्लड शुगर होने के कारण :

शिशुओं का ब्लड शुगर निम्नलिखित कारणों से कम हो सकता है (10) :

  • अगर खून में बहुत अधिक इंसुलिन मौजूद हो। बता दें कि इंसुलिन एक प्रकार का हार्मोन है, जो खून से ग्लूकोज खींचता है।
  • अगर शिशु पर्याप्त ग्लूकोज का उत्पादन करने में सक्षम नहीं है।
  • अगर शिशु का शरीर उत्पादन क्षमता से अधिक मात्रा में ग्लूकोज का उपयोग कर रहा है।
  • अगर दूध पिलाने से शिशु को पर्याप्त ग्लूकोज नहीं ले पाता है, तो ऐसी स्थिति में भी रक्त शर्करा की मात्रा कम हो सकती है।

लो ब्लड शुगर के लक्षण :

आमतौर पर लो ब्लड शुगर की समस्या वाले शिशुओं में किसी प्रकार के कोई लक्षण नहीं दिखाई देते हैं। फिर भी अगर नीचे बताए गए लक्षणों में से एक भी लक्षण शिशु में दिखाई दे, तो डॉक्टर रक्त शर्करा के स्तर की जांच कराने की सलाह दे सकते हैं (10):

  • त्वचा का नीला या पीला पड़ना।
  • एपनिया यानी सांस लेने में रुकावट।
  • तेजी से सांस लेना।
  • सांस लेते समय आवाज आना।
  • चिड़चिड़ापन होना।
  • मांसपेशियों का ढीला पड़ना।
  • सही से भोजन न करना।
  • उल्टी होना।
  • शरीर को गर्म रखने में दिक्कत महसूस होना।
  • कंपकंपी, पसीना या दौरे पड़ना।

लो ब्लड शुगर का इलाज:

नवजात शिशुओं में लो ब्लड शुगर का इलाज निम्नलिखित तरीकों से किया जा सकता है (10):

  • लो ब्लड शुगर की समस्या वाले शिशु को मां का दूध या अन्य फॉर्मूलों के साथ अतिरिक्त भोजन कराने की सलाह दी जा सकती है। अगर मां पर्याप्त दूध का उत्पादन नहीं कर पाती है, तो स्तनपान कराने वाले शिशुओं को अतिरिक्त फॉर्मूला देने की सिफारिश की जा सकती है। कभी-कभी पर्याप्त दूध न होने पर शिशुओं को मुंह से चीनी का घोल भी अस्थायी रूप से दिया जा सकता है।
  • अगर शिशु मुंह से खाने में असमर्थ है या फिर ब्लड शुगर का लेवल बहुत कम है, तो उसे नसों के माध्यम से चीनी का घोल दिया जा सकता है।
  • नवजात शिशु का उपचार तब तक जारी रहता है, जब तक रक्त शर्करा का स्तर सामान्य नहीं हो जाता। इसमें घंटे या दिन लग सकते हैं। वहीं, समय से पहले जन्मे शिशु, कम वजन के साथ पैदा हुए शिशु या फिर संक्रमण की समस्या वाले शिशुओं को लंबे समय तक इलाज की आवश्यकता हो सकती है।
  • इन सब उपायों के अलावा, अगर फिर भी लो ब्लड शुगर की समस्या रहती है, तो दुर्लभ मामलों में रक्त शर्करा के स्तर को बढ़ाने के लिए दवाएं दी जा सकती हैं।
  • बहुत गंभीर हाइपोग्लाइसीमिया वाले नवजात शिशु, जिनका उपचार के बाद भी ब्लड शुगर लेवल में सुधार नहीं आता, उनके अग्न्याशय के हिस्से को हटाने के लिए सर्जरी की आवश्यकता हो सकती है, ताकि इंसुलिन उत्पादन को संतुलित किया जा सके।

5. दस्त

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अगर, शिशु बार-बार मल त्याग करता है, खासकर भोजन के बाद एक से अधिक बार पानी जैसा मल निकालता है, तो शिशु को दस्त की समस्या हो सकती है। बताया जाता है कि शिशुओं और छोटे बच्चों में दस्त निर्जलीकरण का कारण बन सकता है, जो जानलेवा साबित हो सकता है (11)।

अगर इसे मेडिकल परिभाषा में समझें, तो अगर शिशु और छोटे बच्चे प्रतिदिन 200 ग्राम से अधिक मल त्याग करते हैं, तो वह दस्त की समस्या से पीड़ित हो सकते हैं। यह खासकर तब होता है जब आंतों में तरल पदार्थ के अवशोषण और स्राव के बीच संतुलन बिगड़ जाता है।

इसके अलावा, शिशुओं में क्रोनिक डायरिया की स्थिति भी उत्पन्न हो सकती है। यह तब होती है जब 14 दिन से अधिक समय तक शिशु के मल त्याग में लगातार वृद्धि होती है और आंतों में पानी की कमी व इलेक्ट्रोलाइट्स को नुकसान पहुंचने लगता है (12)।

दस्त होने के कारण :

शिशुओं में दस्त आमतौर पर लंबे समय तक नहीं रहता है। अधिकांश मामलों में यह एक वायरस के कारण होता है और अपने आप ही ठीक हो जाता है। शिशु को दस्त निम्नलिखित वजह से हो सकते हैं (13) :

  • शिशु के आहार में बदलाव या फिर स्तनपान कराने वाली महिला के आहार में परिवर्तन होने से।
  • स्तनपान कराने वाली मां या फिर शिशु द्वारा एंटीबायोटिक दवाओं का सेवन करना।
  • किसी प्रकार के बैक्टीरियल संक्रमण के कारण, जिसके लिए शिशु को एंटीबायोटिक लेने की आवश्यकता हो।
  • किसी प्रकार के परजीवी संक्रमण की वजह से, जिसे ठीक करने के लिए शिशु को दवा देनी पड़े।
  • दुर्लभ बीमारी जैसे- सिस्टिक फाइब्रोसिस यानी डाइजेस्टिव ट्रैक्ट में चिपचिपा बलगम का बनना।

दस्त के लक्षण :

दस्त की समस्या होने पर शिशुओं में नीचे बताए गए लक्षण दिखाई दे सकते हैं (11) :

  • पेट में ऐंठन होना।
  • पेट में दर्द होना।
  • बार-बार मल त्याग होना।
  • मल का ढीला या पानी जैसा होना।
  • जी मिचलाना।
  • उल्टी होना।

ज्यादातर मामलों में, दस्त की समस्या एक या दो दिन में अपने आप ठीक हो सकती है। वहीं, कुछ मामलों में यह गंभीर हो सकती है, जिसमें निम्न लक्षण दिखाई दे सकते हैं (11):

  • मल में खून आना।
  • मल में मवाद आना।
  • मल त्याग के समय दर्द महसूस होना।
  • बार-बार उल्टी होना।
  • तरल पदार्थ का सेवन करने में दिक्कत महसूस होना।
  • पेशाब न आना।
  • बुखार आना, खासकर जब तापमान 38 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो।

दस्त का इलाज :

जैसा कि हमने लेख में बताया कि कुछ मामलों में दस्त की समस्या गंभीर हो सकती है। ऐसे में दस्त से पीड़ित शिशु और छोटे बच्चे को तुरंत इलाज की जरूरत होती है, जिसे निम्न प्रकार से किया जाता है (14) :

  • दस्त की समस्या के दौरान निर्जलीकरण को रोकने के लिए डॉक्टर पानी के साथ ओआरएस के सेवन की सलाह दे सकते हैं।
  • शिशु को दस्त की समस्या किस वजह से हो रही है, इस बारे में पता लगाने के लिए शिशु को डॉक्टर के पास ले जाएं।
  • शिशु को किसी भी तरह की दवा देने से पहले डॉक्टरी सलाह जरूर लें।
  • कभी भी बच्चे को उसकी इच्छा से अधिक खाना न खिलाएं।

6. कंजक्टिवाइटिस

conjunctivitis
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कंजक्टिवाइटिस की समस्या नवजात शिशु को भी हो सकती है। इसे पिंक आई यानी गुलाबी आंख के नाम से भी जाना जाता है। यह समस्या तब होती है, जब कंजक्टिवा में संक्रमण या सूजन हो जाती है। बता दें कि कंजक्टिवा एक पतली झिल्ली होती है, जो पलकों के अंदर रेखा बनाती है और आंख के सफेद वाले भाग को ढकती है (15)।

यह समस्या शिशु में आम मानी जाती है। इसे ऑप्थल्मिया नियोनटोरम के नाम से भी जाना जाता है। शिशु को जन्म के पहले चार हफ्तों के दौरान इसके होने की आशंका अधिक होती है। शिशु को इस प्रकार का संक्रमण आमतौर पर प्रसव के दौरान होता है (16)।

कंजक्टिवाइटिस के कारण :

शिशुओं को कंजक्टिवाइटिस यानी आंख आने की समस्या निम्न कारणों से हो सकती है (15) :

  • आंसू निकलने वाले मार्ग में किसी प्रकार की रुकावट होना।
  • जन्म के तुरंत बाद एंटीबायोटिक के साथ आई ड्रॉप दिया जाना।
  • बैक्टीरिया या वायरस के कारण संक्रमण का फैलना।

इसके अलावा, महिलाओं के योनि में रहने वाले बैक्टीरिया भी बच्चे के जन्म के दौरान उनमें फैल सकते हैं। इस वजह से भी शिशु के आंखों को गंभीर नुकसान पहुंच सकता है। नीचे हम उन बैक्टीरिया के बारे में बता रहे हैं (15):

  • गोनोरिया व क्लैमाइडिया: ये यौन संपर्क से फैलने वाले संक्रमण होते हैं।
  • जननांग व ओरल हर्पीज का कारण बनने वाले वायरस: इनसे आंखों को गंभीर नुकसान हो सकता है। हर्पीज नेत्र संक्रमण गोनोरिया और क्लैमाइडिया के कारण होने वाले संक्रमणों की तुलना में ज्यादा सामान्य नहीं होते हैं।

कंजक्टिवाइटिस के लक्षण :

कंजक्टिवाइटिस की समस्या से पीड़ित शिशुओं में निम्नलिखित लक्षण दिखाई दे सकते हैं (15) :

  • संक्रमित नवजात शिशुओं में जन्म के 1 दिन से 2 सप्ताह के अंदर आंखों से आंसू निकलने लगते हैं।
  • इसके अलावा, उनकी पलकें मुलायम, लाल और फूली हुई दिखने लगती हैं।
  • संक्रमण के कारण शिशु की आंखों से खूनी या गाढ़ा मवाद जैसा पानी निकल सकता है।

कंजक्टिवाइटिस का इलाज :

अन्य समस्याओं की तरह कंजक्टिवाइटिस का इलाज भी उसके कारण पर ही निर्भर करता है। यहां हम कंजक्टिवाइटिस के कारणों के आधार पर ही उसका इलाज बता रहे हैं (15):

  • अगर यह समस्या जन्म के समय आई ड्रॉप के कारण हुई है, तो यह कुछ दिनों में अपने आप ठीक हो सकती है।
  • वहीं, अगर आंसू के मार्ग में रुकावट होने के कारण कंजक्टिवाइटिस हुआ है, तो इसके लिए आंख और नाक के क्षेत्र के बीच हल्की गर्म मालिश की सलाह दी जा सकती है। आमतौर पर एंटीबायोटिक शुरू करने से पहले इस उपाय को आजमाया जाता है। अगर शिशु के 1 साल का होने तक आंसू मार्ग को साफ नहीं किया जाता है, तो ऐसे में सर्जरी की आवश्यकता हो सकती है।
  • अगर कंजक्टिवाइटिस की समस्या बैक्टीरिया के कारण हुई है, तो फिर डॉक्टर एंटीबायोटिक दे सकते हैं। इसके अलावा, आई ड्रॉप या फिर मलहम का भी उपयोग किया जा सकता है। वहीं, आंखों से चिपचिपा पदार्थ निकालने के लिए नमक के पानी का भी इस्तेमाल आई ड्रॉप के तौर पर किया जा सकता है।
  • आंख के दाद संक्रमण के लिए विशेष एंटीवायरल आई ड्रॉप या मलहम का उपयोग किया जाता है।

7. डायपर रैशेज

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यह शिशु की त्वचा से जुड़ी एक प्रकार की समस्या है, जो शिशु के डायपर वाले हिस्से में होती है। 4 से 15 महीने के बच्चों मे



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